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Tuesday, June 28, 2011

बोझिल रिश्ते ...


जब रिश्तों से घुट के कोई अपनी जान देता है
तो लगता है क्यों ऊपर वाला ये रिश्ते तमाम देता है ?
वो तो बैठा है धुनी रमा के बेफिक्र
यहाँ तो भाई - भाई पे इल्जाम देता है
क्यों ऊपर वाला ये रिश्ते तमाम देता है ?

सात जन्मों तक रिश्ता निभाने वाले
ऊब जाते है दो चार सालों में ...
मुकद्दर से मिला है जो रिश्ता , वो भी आ जाता है सवालों में ?
इतनें जख्म दें देतें है कुछ लोग , कि मरहम भी कहाँ आराम देता है
क्यों ऊपर वाला ये रिश्ते तमाम देता है ?

अब तो खून के रिश्ते इंसानियत का भी खून कर रहे है
नौ महीने रखा कोख में जिसको ,आज माँ बाप उसी से डर रहे है
हर फरियादी को कहाँ वो मुक्कमल इनाम देता है
क्यों ऊपर वाला ये रिश्ते तमाम देता है ?

मैं इस कद्र खौफजदां हूँ इन रिश्तों से , कि सब से किनारा कर लिया है
जो देता है सुकून दिल को, उसी को जीने का सहारा कर लिया है
अक्सर धोखा मिला है अपनों से हमें , अब शायर दोस्ती को ही सलाम देता है|
क्यों ऊपर वाला ये रिश्ते तमाम देता है ?

Wednesday, June 22, 2011

मैं आम आदमी हूँ ...


मैं आम आदमी हूँ ...
मै खरीद के आम ला नहीं सकता , शक्कर इतनी महंगी कि ख़ुशी में भी मीठा मँगा नहीं सकता ||
मै भूखा रह नहीं सकता , और इस महंगाई में पेट भर खा नहीं सकता
अब तो बिना चेकिंग कराये में भगवान के दर भी जा नहीं सकता,
आरक्षण का डंक ऐसा कि , कितना भी पढ़ लूँ मैं अव्वल आ नहीं सकता ||
घुटनों में रहता है दर्द हमेशा , पर मैं महंगे पेट्रोल का खर्चा भी उठा नहीं सकता
सपने रोज बुनता हूँ आशियाना बनाने के , लेकिन बढती ब्याज दरें ,अब EMI चूका नहीं सकता ||

मैं आम आदमी हूँ ...
किसी को भी सरताज बना सकता हूँ ?,मैं आम को खास बना सकता हूँ ,
लेकिन फिर उस खास तक अपनी आवाज़ पंहुचा नहीं सकता ...
मुझे क़दमों तले रख के ही सभी आगे बढ़ जाते है...
कभी मुझे being human तो कभी india against corruption दिखाते है
मै नहीं जानता लोकपाल , न ही काला धन देखा है कभी ,
फिर भी उनके सुर में ताल मिलाता हूँ , क्यूंकि "बड़ा" कभी गलत बात सीखा नहीं सकता ||

मैं आम आदमी हूँ ....
में भीड़ में खो रहा हूँ , आजाद होने का सारा क़र्ज़ टूटे कंधों पे ढो रहा हूँ
रोज पानी पीने के लिए कुआँ मै खोद नहीं सकता ...
मुस्कराते है मुझे देख के लोग , खुल के इसलिए रो नहीं सकता ...||

मैं आम आदमी हूँ ....
मुझ से मिलना जो चाहो तुम तो चले आना मै मिलूँगा तुम्हे ....

कभी फूटपाथ पे किसी बड़ी गाडी के निचे , तो कभी भीड़ में सफ़ेद कपडे के पीछे
कभी रामलीला में मार खाते हुए तो कभी सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगाते हुए
कभी मिलूँगा प्रशासन से डरता हुआ , तो कभी भूख से बिलख बिलख के मरता हुआ
कभी किसी साधू के पीछे तो कभी किसी नेता के पीछे
अक्सर मिल जाऊंगा तुम्हे किसी बड़ी ईमारत कि नींव के निचे ||
कभी अनशन में तो कभी भाषण में , कभी भिखारी कि तरह खड़ा राशन में ||
कभी किसी कवि कि लेखनी में "दरिद्र" , तो कभी बना "राजा" कहानी किस्सों में
कभी मिलूँगा पेड़ पे लटका सीधा , तो कभी बम से बँटा हिस्सों हिस्सों में
कभी मिल जाऊँगा खाली जेब टटोलते हुए , कभी खाली डब्बों को बार बार खोलते हुए ||
मिल जाऊँगा बसों ट्रेनों कि छत के ऊपर , किसी बेरंग पुराने ख़त के उपर
कभी देश के "दुश्मनों" कि "गोली" खाते हुए , कभी देश के "सिपहसलारों" कि "गाली" खाते हुए|
आज कल जरा फ़ालतू हूँ मिल जाऊँगा हर नुक्कड़ पे काले धन, भ्रष्टचार पे बतियाते हुए ||
मैं आम आदमी हूँ , मुझे चाह के भी कोई मंजिल दिला नहीं सकता ,
मेरा जन्म हुआ है दुःख भोगने के लिये , कोई मुझे मेरे सपनों से मिला नहीं सकता ||

Wednesday, June 15, 2011

दो पल का साथ ...


वो जान के मुझको , मुझ से यूँ अनजान हो गया ..
खुदा देखा था जिस शख्स में मैंने, वो भी इंसान हो गया |
गुलिस्ताँ था गुलशन तेरे आने से पहले....
इक तेरे आकर के चले जाने से, वीरान हो गया ||
खुदा देखा था जिस शख्स में मैंने, वो भी इंसान हो गया |

यहाँ मौत भी कहा अपनी मर्ज़ी से मिलती है |
फिर हमें भी ऊपर वाले ने ही मिलाया होगा ?
चार दिन कि चांदनी , दो पल का साथ ,
ये सभी रंग देख के, मै भी हैरान हो गया
खुदा देखा था जिस शख्स में मैंने, वो भी इंसान हो गया ||

यूँ तो अपना हर ख्वाब टूट ही जाता है सुबह से पहले
मंजिल तक भी कोई साथ चलता नहीं .....
हर मोड़ पे मिलते है मुसाफिर , अपना लाखों में एक मिलता नहीं
शायर तेरे जाने से , इक पल को परेशान हो गया ...
खुदा देखा था जिस शख्स में मैंने, वो भी इंसान हो गया ||

इन शब्दों कि आहट , तुझ तलक भी पहुचें ...
क्यों हुआ , क्या हुआ तू भी बैठ के सोचे...
तुझे तो अहसास भी न हुआ , तेरे गुनाह का
पर तू जहाँ -२ से गुजरा, बेवफाई का फरमान हो गया
खुदा देखा था जिस शख्स में मैंने, वो भी इंसान हो गया ||

Wednesday, June 8, 2011

पराया हुआ देश ...



हम अपने देश में ही पराये हो गए है , ये कौन सी हवा बहने लगी है..?
चंद विदेशी हाथ बटोरने में लगे है , हमारी खून पसीने कि गाढ़ी कमाई ,
साधू को बना दिया अपराधी इन्होने , और आतंकवादी बने है इनके जमाई ||
भ्रष्टाचार से लड़ने वालो को भी सरकार, साम्प्रदायिक ताकतें कहने लगी है
हम अपने देश में ही पराये हो गए है , ये कौन सी हवा बहने लगी है ||

जिन को हमने चुना देश चलाने को, वो हमें ही चुन चुन के मार रहे है ?
हरिश्चंद्र के देश में सच कि आवाज़ उठाने वाले, झूट के आगे हार रहे है ||
वाल्मीकि किस हक़ से लिखे अब रामायण, रामलीला में भी रावण सेना रहने लगी है||
हम अपने देश में ही पराये हो गए है , ये कौन सी हवा बहने लगी है

गांधी के देश में सत्याग्रह हो गया पाप ,अपने हक़ के लिए लड़ना भी बन गया अभिशाप ||
गांधी के आदर्शो को गांधी ने कर दिया साफ़ , गांधी जिसकी जेब में वो ही अब माई बाप ||
आम आदमी कि मजाल क्या सर उठा के जिये,
गांधी कि आत्मा भी अब यहाँ सहमी सहमी रहने लगी है |
हम अपने देश में ही पराये हो गए है , ये कौन सी हवा बहने लगी है..?

Sunday, June 5, 2011

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?


मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?

क्या हुआ गर मुझे नहीं मिला, मेरी करनी का फल ...

क्या हुआ गर हुआ मैं , हर राह पे विफल ......

मै टूटते सपनों का , चलता फिरता शमशान ही तो हूँ

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?


क्या हुआ गर मेरे कदम सत्य कि तलाश में लडखडा जाते है

क्या हुआ गर कागज़ के चंद टुकड़े मुझे ललचाते है ?

मैं सिगरेट के पेकेट पे बना कैंसर का निशान ही तो हूँ

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?


क्या हुआ गर मै रिश्तों को एक धागे में पिरो नहीं पाया

क्या हुआ गर मैं कभी अपनों के काम नहीं आया ...

मै फिर भी मुश्किल सवालों का हल, आसान ही तो हूँ |

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?


क्या हुआ गर मुझे दर्द किसी का दिखाई नहीं देता

क्या हुआ गर मुझे सिसकियाँ किसी कि सुनाई नहीं देती

मै मंदिर में बैठा , पत्थर का भगवन ही तो हूँ ...

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ॥?


क्या हुआ गर आशाएं मैंने किसी कि पूरी नहीं कि

क्या हुआ गर मैंने नाम किसी का नहीं किया रोशन

मैं फिर भी तुम्हारे लिए एक इनाम ही तो हूँ

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ..||

मैं केवल एक इंसान ही तो हूँ ..||

Wednesday, June 1, 2011

कुछ सच ...


हमें हर मुस्कान के बदले अपना एक ख्वाब देना पड़ता है
न जाने क्यूँ हमें अपने किए का हिसाब देना पड़ता है
वो तो लूट के ले गया सब कुछ उजाले में
हमे तो अँधेरे का भी जवाब देना पड़ता है ||

जो चलना सीखे थे हमारी ऊँगली पकड़ के कभी,
उन्हें अब हमारा, धीरे चलना अखरता है .....
वो चल पड़ा है खरीदने खुशियाँ कागज़ के चंद टुकड़ों से ,
सच भी तो ये है ,सही भाव पे यहाँ हर रिश्ता बिकता है ||

जो चिराग किए थे हमने रोशन कभी , अँधेरा मिटाने को ...
उसकी लौं आज काम आ रही घर जलाने को ||
किसे फ़िक्र पड़ी है अब किसी के अरमानों कि ?
मेरा दर्द तेरी आँखों से , बात हो गयी है वो गुजरे जमाने कि ||

अब तो दिल टूटता है तभी दिल लिखता है
हर रिश्ता पूरा, केवल टूटे आईने में दीखता है
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