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Friday, September 23, 2011

तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ...


मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह... क्या खूब लिखता हूँ ||
तेरे आंसुओं से, शब्दों को सींचा है
तेरे दर्द को दिल से समझा है
हर शब्द बयाँ करते है, खालिस सच्चाई
कोई साबित तो करें, की झूट लिखता हूँ !
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

मैं ग़मों का व्यापारी नहीं हूँ,
दांव लगाऊं तेरे दर्द का , कोई जुआँरी नहीं हूँ
मैं रोती रातों को "अमावस",खुशियों की कमी को "भूख" लिखता हूँ
अकेलेपन को "अँधेरा" , भीगी पलकों को, "गीली दूब" लिखता हूँ
किसी को अच्छा लगे या बुरा , मैं सिर्फ दो टूक लिखता हूँ
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

मेरी कविता की किताब के एक एक पन्ने
तुझे तेरी जिन्दगी का हिसाब देंगे ...
मेरे छंद देंगे, तुझे होंसला जीने का
शब्द तेरी आँखों पे, हसीं ख्वाब देंगे .. ||

तुम देती हो मेरे शब्दों को जीवन
मैं तेरे नाम अपना, "वजूद" लिखता हूँ
मैं जब भी तेरे ग़मों में, डूब के लिखता हूँ
लोग कहते है ....वाह क्या खूब लिखता हूँ ||

8 comments:

Aparajita said...

bahut hi behatreen !
very nice really

Sunil Kumar said...

दिल से निकली हुई रचना अब हम नहीं कहेंगे क्या खूब लिखा है

Anonymous said...

too good sir

Rajesh Kumari said...

bahut umda ghazal.

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही शानदार रचना है....लाजवाब

vandana gupta said...

वाह विजय जी ……………बेजोड लाजवाब रचना।

sumukh bansal said...

nice one...

vikas anand said...

bahut umda

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